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नेताओं के यह कैसे बोल

socailesue
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आज राजनीति में अमर्यादित तथा स्तरहीन भाषा का चलन तेजी से बढ़ रहा है। जो लोकतन्त्र की परम्परा के विपरीत है। महात्मागांधी के सिद्धान्तों पर चलने की बात करने वाले हमारे देश के नीति-नियन्ता जब ऐसी भाषा बोलते हैं,तो मन निराशा से भर उठता है। केन्द्रीय मन्त्री सलमान खुर्शीद को ही लीजिए उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को कुंए का मेढक बता दिया। जबाब में भाजपा प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी ने सलमान खुर्शीद को काक्रोच कह डाला। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब प्रधानमंत्री पद के एक दावेदार ने दूसरे दावेदार को Þ पप्पू Þ कहा था। दूसरे दावेदार ने पहले दावेदार के लिए Þ फैंकू Þ शब्द को प्रयोग किया था। इसी तरह एक केन्द्रीय मंत्री समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के लिए बोल चुके हैं कि उन्हें Þ स्वीपर Þ की नौकरी के लिए आवेदन करना चाहिए। अमर्यादित भाषा का रिकार्ड बनाने की दौड़ में कांगे्रस महासचिव दिग्विजय सिंह भी शामिल हैं। कुछ दिन पूर्व उन्होंनें अपनी ही एक केन्द्रीय नेता मीनाक्षी नटराजन को Þ टंच माल Þ कह डाला था। हो हल्ला होने पर उन्होंने इस सम्बन्ध में काफी सफाई दी थी। Þ आप Þ पार्टी के संयोजक अरबिन्द केजरीवाल ने संसद को Þ बलात्कारियों और हत्यारों Þ के ठिकाने की संज्ञा दी थी। उनके इसी बयान पर निशाना साधते हुए आरजेडी नेता रामकृपाल यादव ने उन्हें Þ पागलखाने Þ भिजवाने की मांग की थी। उधर Þ दीदी Þ पश्चिम बंगाल में ऐसा ही रिकार्ड बनाने में जुटी हैं। उनसे बचाव जरूरी है क्योंकि उन्होंने तो अपने आलोचकों को Þ पोर्नोगाफर Þ तक कह डाला है। वैसे यह सिलसिला नया नहीं है। कातिल ,कमीशनखोर,हत्यारे,चोर,लुटेरे,गुन्डा आदि विशेषण तो राजनेताओं द्वारा राजनेताओं पर चस्पा करने का सिलसिला लगातार जारी है। इधर जबसे इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया ज्यादा सक्रिय हुआ है,तब से राजनेताओं में सुर्खियों को बटोरने का लालच जाग उठा है। ऐसा लगता है कि राजनेता Þ छपास Þ और Þ दिखास Þ रोग से ग्रसित हो गये हैं। कोई भी दल इन रोगों से अछूता नहीं है। देखने में आया है कि तालियां तथा सुर्खियां बटोरने की चाह में राजनेताओं को जब भी (खासकर चुनावी मौसम में )मौका मिलता है,वे एक दूसरे के प्रति अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने से नहीं चूकते। विवाद की स्थिति में वही रटा-रटाया बयान दे देते हैं,कि मीडिया ने उनकी बात को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है। समझ में नहीं आता है कि तालियों,सुर्खियों की क्रेज नेताओं केा कहाँ-कहाँ किस-किस स्तर पर गिरायेगी। क्या बिडम्बना है कि धार्मिक उन्माद फैलाने वाली भाषा पर तो कानूनी कार्यवाही मुमकिन है लेकिन राजनेताओं की अमर्यादित भाषा पर कोई पाबन्दी नहीं। कितना अच्छा हो जो राजनेताओं को अमर्यादित भाषा पर पाबन्दी लगाये जाने का कोई रास्ता निकल आये। लेकिन यहां सवाल यह है कि यह रास्ता निकाले तो निकाले कौन?

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