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जिन्दगी की जंग हारते लोग

socailesue
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अभी हाल ही में आये नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में वर्ष २०१२ के मुकाबले वर्ष २०१३ में १९.५ फीसदी ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की है। वैसे अन्य राज्यों की अपेक्षा उत्तर प्रदेश में आत्महत्या की घटनाएं कम होती रही हैं। लेकिन अब यहां ऐसी घटनाएं बढऩे लगी हैं। यहां कुछ ऐसी भी घटनाएं हुईं जिनसे लोग चौक गये। इसी वर्ष पूर्व डीजी सीएल वासन ने नोएडा में आत्महत्या कर ली। उनसे पहले राजधानी में ही जज एमए खांन तथा प्रमुख सचिव हरमिन्दर राज व एडीएम विनोद राय की आत्महत्या के भी मामले सामने आये जिनमें अलग-अलग वजह बताई गईं। आंकड़ों को देखें तो वर्ष २०१२ में ४४२२ लोगों ने आत्महत्याएं कीं जबकि २०१३ में यह आंकड़ा बढ़कर ५२८६ हो गया। आंकड़ों के अनुसार वर्ष २०१३ में कानपुर में ४.३ फीसदी और मेरठ में १६.०२ फीसदी आत्महत्या में कमी आईं लेकिन इसी अवधि में आगरा में ११९ फीसदी,इलाहाबाद में १९३ फीसदी,गाजियाबाद में १२२ फीसदी,लखनऊ में ८.९ तथा वाराणसी में ६१ फीसदी आत्महत्या की घटनाएं बढ़ीं। आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में आत्महत्या करने वाले सर्वाधिक युवा होते हैं। वर्ष २०१३ में पन्द्रह वर्ष से तीस वर्ष की उम्र वाले चालीस फीसदी से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की। आंकड़ों के अनुसार ६४ फीसदी शादीशुदा लोगों ने आत्महत्या की। लगभग २५ फीसदी आत्महत्या करने वाले गैर शादीशुदा लोग हैं। आत्महत्या करने वाले लोगों में किसी ने पारिवारिक कारणों से तंग आकर आत्महत्या की तो किसी ने बीमारी के मारे जान दे दी। किसी ने प्रेम सम्बन्ध में तो किसी ने आर्थिक तंगी के चलते जीवन से नाता तोड़ दिया। उत्तर प्रदेश की तरह देश के अन्य राज्यों में भी आत्महत्या करने का सिलसिला थामे नहीं थम रहा है। खैर,जो भी हो यहां बड़ा सवाल यह है कि किशोर से लेकर बुजुर्ग,निर्धन,व्यापारी तथा छात्र यहां तक की उच्च पदों पर आसीन लोग यों ही जीवन से क्यों पलायन करने को विवश हैं? बाहरी तौर पर दिखने वाला यह निजी कृत्य वास्तव में एक सामाजिक कृत्य है। आम आदमी के लिए यह विश्वास कर पाना सहज नहीं है,पर सच्चाई यही है कि समाज तो ही व्यक्ति के आस-पास ऐसा तानाबाना बुनता है कि व्यक्ति आत्महत्या करने को विवश हो जाता है। माना कि खुशी व आत्मिक संतुष्टिï को किसी एक लाइन में परिभाषित नहीं किया जा सकता,लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हर व्यक्ति को चाहे वह कितना भी सफल क्यों न हो,परिवार व मित्रों के साथ की जरूरत होती है। लेकिन महत्वाकांक्षाओं ने उसे हर रिश्ते से दूर कर दिया है। अब सफलता की परिभाषा भी बदल चुकी है। जब सफलता की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते कदम थक जाते हैं,तो पीछे मुड़कर देखने पर अकेलेपन के सिवा कुछ शेष नहीं रहता। यही अकेलापन जीवन में इस कदर निराशा भर देता है कि व्यक्ति को हर सफलता निरर्थक सी लगने लगती है। एक अहम तथ्य और भी है कि पिछले कुछ वर्षों में अप्रत्याशित समृद्धि व वैश्वीकरण के चलते युवाओं की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। कम समय में अधिक पाने की चाह,सहनशीलता की कमी,गलाकाट प्रतिस्पर्धा और लगातार बढ़ते दबाव से युवा अवसाद का शिकार हो रहे हैं। सफलता पर विफलता के बीच संघर्ष करते हुए युवा जीवन के बेहद दौर से गुजर रहे होते हैं और यह स्थिति तब और दु:खद हो जाती है,जब वे परिवार से दूर स्वयं को स्थापित करने की चाह में घर से दूर जाते हैं। वहां उनके आस-पास अकेलापन पसरा हुआ होता है। यदि वे सफल होते हैं,तब तो ठीक अन्यथा की स्थिति में मौत को गले लगाना ही उचित समझते हैं। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हमारे समाज में लोगों को एक दूसरे की समस्याओं से कोई मतलब नहीं रह गया है। इससे एक ऐसी सामाजिक परिस्थिति आन खड़ी हो गयी है,जिसमें पहले का जो सहयोग वाला ढांचा था और जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी समस्याओं का हल ढूंढ पाता था,लगभग ध्वस्त हो चुका है। इसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति खुद को पूरी तरह से अलग-थलग पाता है। जब उसके मन में अकेलेपन की भावना आती है तब व्यक्ति अपने को समाज से दूर करने प्रक्रिया में जुट जाता है। यदि हम चाहते हैं कि आत्महत्याओं का यह सिलसिला थमें,तो हम सब को अपना उत्तरदायित्व समझना ही होगा। इसलिए हम जहां,जिस समाज में रहते हैं उसके प्रति हमारी जिम्मेदारी बनती है कि कुछ हम उसे भी दें।

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