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जिस कानून व्यवस्था के मुद्दे को लेकर २०१२ में समाजवादी पार्टी स्पष्टï बहुमत के साथ सत्ता में आयी थी,आज वह उसी मुद्दे पर घिरती नजर आ रही है। उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्य मंत्री सुश्रीमायावती के कुशासन से त्रस्त आकर प्रदेश की जनता ने युवा अखिलेश यादव को यह सोचकर प्रदेश की सत्ता सौंपी थी कि वह उसकी उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। लेकिन यह हो न सका। आज प्रदेश में काननू व्यवस्था नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है। दुष्कर्म की घटनाओं की तो बाढ़ सी आ गई है। कई पुलिस वालों के दामन पर भी दाग लग चुके हैं। जहां तक साम्प्रदायिक रूप की बात है तो अब तक दो महीने के भीतर ही साम्प्रदायिक तनाव की २५९ की घटनाएं हो चुकी हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो सम्प्रदायिकता की आग में जल रहा है। इतना सब कुछ होने के बाद भी कभी-कभी जिम्मेदार अधिकारी अपराधों पर पर्दा डालने के लिए अजब-गजब तर्क देते हैं। प्रदेश के मुखिया भी कह उठते हैं कि देश के कुछ प्रदेशों में अपराधों की संख्या उत्तर प्रदेश से ज्यादा है। समझ में नहीं आता कि सरकार और उसकेअधिकारी यह सब कहकर क्या संदेश देना चाहते हैं। वैसे आम जन अच्छी तरह से समझ चुका है कि सरकार अपराधों पर अंकुश लगाने में नाकाम रही है। दरअसल,प्रदेश का शासन मुख्यमंत्री के अलावा पर्दे के पीछे से कुछ उनके अपने चला रहे हैं। जिसके कारण वह चाहकर भी कड़े फैसले नहीं ले पा रहे हैं। जिसका खामियाजा आमजन को भुगतना पड़ रहा है। अखिलेश सरकार बने ढाई साल हो चुके हैं। लेकिन आम जन की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। लोगों को न तो बिजली मिल पा रही है और न ही अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं तथा न ही बच्चों को अच्छी शिक्षा। अस्पतालों में चिकित्सक नहीं हैं तो सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी हैं। बेरोजगारों की फौज लम्बी होती जा रही है। प्रदेश में नये कारखाने नहीं लग पा रहे हैं। लगता है कि सपा सरकार अपने विकास के वादे को भूल रही है। प्रदेश में यदि कोई मजे में है तो वे हैं राशन माफिया,खनन माफिया,शिक्षा माफिया तथा भूमाफिया एवं गुंडे-लफंगे आदि-आदि। प्रदेश की वर्तमान स्थिति को देखकर आम आदमी अब यही कहने लगा है कि इससे अच्छी तो मायावती की ही सरकार थी।
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