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हाशिए पर शिक्षक

socailesue
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राष्ट्र निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक के आगे आज तमाम चुनौतियां हैं। ये चुनौतियां हमारी सरकार ने ही पैदा की हैं। उदारीकरण की आंधी के बाद हमारे देश के नीति-निर्धारकों ने शिक्षा के नाम पर जो भी कदम उठाए हैं, उनसे न तो शिक्षा की हालत सुधर रही है और न ही शिक्षकों की। सरकार द्वारा शिक्षा का अधिकार कानून बनाया गया लेकिन उसमें शिक्षकों के लिए विशेष कुछ नहीं किया गया। जो भी हो, आज शिक्षा का इस कदर बाजारीकरण हो चुका है कि शिक्षकों की कीमत पहचानने वाला कोई नहीं रह गया और न ही शिक्षक मूल्यों की रक्षा करने को लेकर पहले की तरह सचेत है। देश की शिक्षा नीति पर विश्व बैंक की नीतियां हावी सी दिखती हैं। शिक्षा व्यवस्था पर कारपोरेट का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। शिक्षक केन्द्र सरकार के हों या राज्य सरकार के सभी का कैडर तहस-नहस हो चुका है। सरकारी नीतियांे के चलते स्कूल-कालेजों में शिक्षकों की भारी कमी है। जो शिक्षक हैं भी उनमें से अधिकतर अप्रशिक्षित हैं। लेकिन सरकार को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अप्रशिक्षित शिक्षक शिक्षण कार्य को ठीक ढंग से कर पायेगे या नहीं। सच यही है कि सरकार शिक्षकों की अहमियत समझना ही नहीं चाहती। वह कामचलाऊ रवैया अपनाये हुए हैं। दरअसल, सरकार नई शिक्षा नीति के माध्यम से ऐसी व्यवस्था करने पर उतारू है जिसमें शिक्षा और शिक्षक, दोनों के लिए कम जगह हो और लोगों के प्रति भी उसकी कोई जबावदेही न हो। सरकार की मंशा यही है कि शिक्षा पर कारपोरेट हॉवी हों। यदि सरकार वास्तव में शिक्षा के प्रति गंभीर होती तो वह समान स्कूल प्रणाली और पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर काम करती। लेकिन सरकार ऐसा करती नजर नहीं आ रही है। रही बात शिक्षकों के सम्मान की तो उनके सम्मान के लिए जरूरी यह है कि उनके कैडर को बचाया जाए और शिक्षा के कार्य में बगैर किसी व्यवधान के उन्हें लगाया जाए। स्कूल- कालेजों में खाली पड़े शिक्षकों के पदों को शीघ्र भरा जाए। शिक्षक तभी सम्मानित रह पायेंगे जब शिक्षा पर सरकारी पकड़ बनी रहे। वैसे शिक्षा को बाजार के हवाले करने का अर्थ यही है कि शिक्षक भी बाजार के हवाले है। शिक्षक जिन मूल्यों के संवाहक हैं वे शिक्षा के बाजारीकरण के दौर में कभी भी सुरक्षित नहीं रह सकते।

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